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सीताराम येचुरी के किताब घृणा की राजनीति का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
जाने-माने कम्युनिस्ट नेता, ए के गोपालन की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला का तेरहवां व्याख्यान 13 अप्रैल 1998 को नई-दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब हाल में हुआ था। व्याख्यान का विषय था, स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक व फासीवादी ताकतों का उदय । आज के दौर में इस विषय की प्रासंगिकता को देखते यहाँ उस व्याख्यान को प्रस्तुत किया जा रहा है।
यह वाकई महत्त्वपूर्ण है कि यह व्याख्यान भारत की आजादी की पचासवीं सालगिरह के वर्ष में हो रहा है। आजादी की लड़ाई में एकेजी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। फिर भी, शायद इसकी याद ज्यादा लोगों को नहीं होगी कि जिस समय भारत को आजादी मिली, एकेजी को तब भी आजादी नहीं मिली और उस समय वह जेल में ही थे। अपने संस्मरणों में वह इस समय को याद करते हुए लिखते हैं: “14 अगस्त 1947 को विशाल कन्नानूर जेल में तनहाई की कैद में मैं अकेला बंद था। और कोई राजनीतिक बंदी नहीं था। रात भर मैं सो नहीं सका। जेल के चारों कोनों से जय-जय के नारे सुनाई दे रहे थे। महात्मा गाँधी की जय और भारत माता की जय के नारे सारी जेल में गूंज रहे थे। पूरा देश सूर्योदय के बाद के समारोहों की प्रतीक्षा कर रहा था। उनमें कितने ही ऐसे लोग थे जिन्होंने वर्षों इस दिन का इंतजार किया था, इसके लिए संघर्ष किया था और इसके लिए संघर्ष में अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था। मेरे मन में खुशी की भावना भी थी और दुःख की भी। मुझे खुशी थी कि जिस लक्ष्य के लिए मैंने अपनी पूरी जवानी लगा दी थी और जिसके लिए मैं अब भी जेल में था, पूरा हो गया था। लेकिन, मैं तो अब भी कैदी ही था, इस बार भारतीयों के हाथों में कैदी। ब्रिटिश सरकार ने नहीं कांग्रेसी सरकार ने मुझे कैद करके रखा था। 1927 से लगाकर कांग्रेस की स्मृतियाँ मेरी आँखों के सामने नाचने लगीं। केरल में कांग्रेस के आंदोलन में मैंने जो भूमिका अदा की थी, उस पर मुझे गर्व था। जो शख्स केरल कांग्रेस का सचिव हुआ करता था, कुछ समय के लिए अध्यक्ष भी रहा था और लंबे अर्से तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य रहा था, जेल में 15 अगस्त मना रहा था!”
यही वह भावना थी जिसने एकेजी को, कांग्रेस से शुरू कर, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से गुजरते हुए, भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के और आगे चलकर सी पी आइ (एम) के संस्थापकों की कतार में पहुँचा दिया। एक आधुनिक स्वतंत्र भारत की जो कल्पना उनके मन में मूर्त थी, वह इसी संघर्ष का अभिन्न हिस्सा थी। भारत के भविष्य की इस कल्पना की इमारत जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद व सामाजिक न्याय के आधार-स्तंभों पर टिकी हुई थी। यह कल्पना, भारतीय जनता की वास्तविक मुक्ति की कल्पना थी।
भारत की ठीक इसी कल्पना के लिए, जो हमारी आजादी की लड़ाई के जरिए विकसित हुई थी और भारतीय जनता के बहुमत द्वारा अपनायी गयी थी, अभूतपूर्व चुनौतियाँ पैदा हो गयी हैं। भाजपा के देश की सत्ता की बागडोर संभाल लेने और उसके जरिए आर एस एस का सत्ता पर नियंत्रण हो जाने से, भारत की इस कल्पना का भविष्य ही दांव पर लग गया। इस पृष्ठभूमि में यह उपयुक्त ही है कि आज के व्याख्यान के विषय के रूप में स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिकता व फासीवाद का उभार के मुद्दे को चुना गया है।
स्वतंत्र भारत के भविष्य की विरोधी कल्पनाओं की टकराहट की शुरूआत कोई आजादी मिलने के साथ नहीं हुई थी। इसके विपरीत, बीस के दशक में हो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के साथ तो इसकी बाकायदा शुरुआत चुकी थी क्योंकि अब एक ऐसी ताकत सामने आ चुकी थी जो भारत को एक धर्माधारित हिंदू राष्ट्र में तब्दील कर देना चाहती थी। तब से लगातार इस कल्पना का, राष्ट्रीय आजादी के संघर्ष में विकसित हुई कल्पना के साथ संघर्ष चलतारहा था।

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